दबंगता से लिखे व्यंग्यों का संग्रह -मिर्ची लगी तो मैं क्या करूँ?

 


डॉ. महेंद्र अग्रवाल एक ऐसा नाम जो गीत, ग़ज़ल के तो उस्ताद के रूप में तो जाना ही जाता है। व्यंग्य के अखाड़े में भी वे उस्ताद से कम नहीं है। वे दबंगता के साथ खुला लिखते है, कटाक्ष करते है, तभी तो उनने अपने हाल ही में प्रकाशित व्यंग्य संग्रह का नाम दिया ‘मिर्ची लगी तो मैं क्या करूँ’ है।

व्यंग्य की भाषा व्यंजना की होती है। और अपने मारक प्रयोग से सामने वाले को घायल जरुर करती है। व्यंग्य जिस पर केन्द्रीत है वो बहुत जल्दी व्यंग्य को मार को बहुत आसानी से समझ लेता है। और चोर की दाढ़ी में तिनका वाले हालात में रहता है। मिर्ची लगी तो मैं क्या करूँ में शामिल 27 व्यंग्य-रचनाओं में व्यंग्य का तीखापन पता नहीं किन-किन को लगेगा और कौन-कौन सी-सी करेगा। पर हॉ जिन पाठकों तीखा पसंद है,चटखारें पसंद है वे जरुर इस कृति का मजा लेंगे। ये भरोसा है क्योंकि व्यंग्यों के विषय और पात्र रोचक ही नहीं प्रभावी भी है।
व्यंग्यकार - डॉ महेन्द्र अग्रवाल

इस कृति के सारे पात्र या विषय कोरी कल्पना नहीं है, यथार्थ है। जो घटनाएँ रोचक किस्सों में लपेट कर डॉ महेन्द्र अग्रवाल जी ने अपने तीखे व्यंग्यों के माध्यम से विषय अनुसार क़लम बद्ध की है वे सब कभी न कभी हमारे देश की राजनीति में, समाज में या साहित्य जगत में घट चुकी है। या आज भी घट रही है।

व्यंग्य के विषय व्यंग्य की भूमिका जैसे होते है, ठीक वैसे जैसे किताब की भूमिका से किताब में क्या है ये पता चल जाता है, उसी तरह डॉ महेन्द्र अग्रवाल जी के व्यंग्य के विषय उन व्यंग्यों को पढ़ने को मजबूर कर देते है। जैसे नेताजी न्यारे, शांतिपूर्ण चुनाव, कवि का उतावलापन, कोप भवन,डोपिंग टेस्ट, मांगलिक लेनदेन, पत्र लेखक व्यंग्यकार, राजनीति, चुनाव और साहित्यकार, साहित्य और स्वाभिमान आदि लगभग सभी विषय पाठकों को चुम्बक की तरह खिंचते है।

विषय के साथ व्यंग्य के नवनीत की बात करे तो कई बेहतरीन जुमले व्यंग्य के स्वाद को बढ़ा कर तीखी मिर्ची का काम कर रहे है।जैसे-

*वे पहुंचे हुए नेता है। मतलब उनकी पहुंच में सब हैं किंतु वे किसी की पहुंच में नहीं है।

* कई बार सम्मान समारोह में शाल की जगह हल्दी की गांठ मिलने भर से वे बल्लियां उछालने लगते है।

*भाई भाई के संबंधो में भी नई तरह की युगीन गर्माहट आ रही है। घर का मुखिया एक को मनाता है तो दूसरा रूठ जाता है। जैसे परिवार का सदस्य न हो, विधायक हो।

*साहित्यकारों का भी डोपिंग टेस्ट होना चाहिए।किसी भी कार्यक्रम से पूर्व अध्यक्ष, मुख्यअतिथि सहित मंचासीन व्यक्तियों, वक्ताओं का यदि डोपिंग टेस्ट हो तो कैसै रहे?

*चुनावों के समय दिन भी बदलते हैं और लोगों के दिल भी; दिल बदलने से दल भी बदलता है और फिर दिन तो बदल ही जाते हैं।

*मजबूरी का नाम महात्मा गांधी है। क्यों? क्योंकि उन्हें न चाहने के बाद भी सार्वजनिक रूप से बार बार याद जो करना पड़ता है। साल में दो बार उनकी समाधी पर जाना पड़ता है।

*सूचना एवं प्रसारण मंत्री ऐसे होते है कि उन्हें खुद के हटाए जाने की सूचना नहीं होती।

*जैसे बच्चे की शादी सभी पोते की कामना से करते हैं और कहते है कि हम तो अपना फर्ज निभा रहे हैं।

*रचनाकार कितना भी प्रयास करे किंतु उसकी कुंठाएं उसकी रचना में कहीं न कहीं सिर उठा लेती है।

*कुत्ता वफादार होता है मगर जरुरी नहीं कि हर बार कुत्ता ही वफादार हो, कभी-कभी राजनीति में वफादार भी कुत्ता निकल जाता है और बनी हुई सरकारें बिगाड़ देता है।

व्यंग्य के घोल में लपेटे और भी कई जुमले है जो सच बयानी करते है। जैसे भजिए को जुबान पर रखे बगैर उसके स्वाद का पता नहीं चलता, उसके तीखेपन का पता नहीं चलता वैसे ही बगैर इस कृति को पढ़े इस कृति के रहस्यमय व्यंग्यों को समझा नहीं जा सकता है।

डॉ महेन्द्र अग्रवाल जी के पहले भी कई व्यंग्य संग्रह प्रकाशित हो चुके है। उनके लेखन की विशेषता है कि वे लेखन दोहराव से मुक्त है। वे ही सपाट बयानी भरे वाक्य नहीं लिखते है। बड़े वाक्यों में लपेट-लपेट कर बात कहते है। साथ ही मुहावरों और शेरो शायरी के साथ व्यंग्य का जायका पाठकों के लिए तैयार करते है। जो रस भंग नहीं होने देते।

इस बेहतरीन व्यंग्य संग्रह को जे.टी.एम. पब्लिकेशन दिल्ली ने बहुत ही बढ़िया कागज़ पर प्रकाशित किया है। आवरण से अंत सब अच्छा है। एक अच्छा और सच्चा व्यंग्य संग्रह पाठकों को सौपने के लिए डॉ महेन्द्र अग्रवाल जी को बधाई।

कृति -मिर्ची लगी तो मैं क्या करूं (व्यंग्य संग्रह)
लेखक - डॉ. महेंद्र अग्रवाल ,
प्रकाशक -जे. टी. एस. पब्लिकेशंस, विजय पार्क, दिल्ली - 110053
पृष्ठ - 141,
मूल्य - सजिल्द संस्करण 500 रु.

चर्चाकार - संदीप सृजन
sandipsrijan.ujjain@gmail.com 

अगली पीढ़ी के प्राणों में भी बसानी होगी हिन्दी

 


हिन्दी भाषा भारत में सबसे ज्यादा बोली जाने वाली भाषा है। यह हम भारतीयों की पहचान है। भारत में अनेक भाषाएं हैं मगर फिर भी हिन्दी का प्रभाव सर्वत्र देखा जा सकता है। विश्वभर में करोड़ों लोग हिन्दी भाषा का प्रयोग करते हैं। हिन्दी भाषा एक ऐसी भाषा है,जिसमें जो हम लिखते हैं,वही हम बोलते हैं उसमें कोई बदलाव नहीं होता है। हिन्दी भाषा की सहयोगी लिपि देवनागरी इसे पूरी तरह वैज्ञानिक आधार प्रदान करती है।

इन सभी कारणों से 14 सितम्बर 1949 को संविधान सभा ने यह निर्णय लिया कि हिन्दी केन्द्र सरकार की आधिकारिक भाषा होगी और हिन्दी को राजभाषा बनाने का निर्णय लिया और इसी निर्णय के महत्व को प्रतिपादित करने तथा हिन्दी को प्रत्येक क्षेत्र में प्रसारित करने के लिये वर्ष 1953 से पूरे भारत में 14 सितम्बर को प्रतिवर्ष हिन्दी-दिवस के रूप में मनाया जाने लगा ।

हिन्दी को समृद्ध करने में सबसे बड़ा योगदान संस्कृत का है। संस्कृत विश्व की सबसे प्राचीन भाषा मानी गई है और हिन्दी का जन्म संस्कृत की कोख से ही हुआ है। कई संस्कृत शब्दों का प्रयोग हिन्दी में बिना किसी परिवर्तन के किया जाता है,उन शब्दों का उच्चारण और ध्वनि भी संस्कृत के समान ही है। इस कारण हिन्दी को एक विशाल शब्द कोष जन्म के साथ ही संस्कृत से मिला है,जो उसके अस्तित्व को विराट बनाता है ।

हिन्दी यूँ तो हमें परम्परा से मिली भाषा है,इस कारण से इसे पैत्रृक सम्पत्ति ही माना जाना चाहिए । जब हम छोटे बच्चे थे और बोलना सीख रहे थे,उस समय हमारे परिवेश की जो भाषा थी वह उम्र के किसी भी पड़ाव पर जाने के बाद भी सहज और सरल ही लगती है।मगर अब लगता है कि अंग्रेजी का प्रभुत्व हिन्दी पर प्रभाव डाल रहा है। हिन्दी का अस्तित्व तभी रहेगा जब हम उसे दिल में बैठा ही रखेंगे । हमें अगली पीढ़ी तक हिन्दी को प्रभावी स्वरुप में पहुंचाना होगा। याद रहे बोलने वालों कीसमझने वालों की संख्या में जब वृद्धि होती हैतो भाषा का विस्तार होता चला जाता है हिन्दी के साथ यही होना चाहिए। हिन्दी को अब सिर्फ राजभाषा नहीं राष्ट्र भाषा का सम्मान मिलना चाहिए।

संदीप सृजन

ए-99 विक्रमादित्य क्लॉथ मार्केट

उज्जैन 456006 (म,प्र)

मो. 9926061800

मेल – shashwatsrijan111@gmail.com

सजग का माइक्रोस्कोप में है समाज की रिपोर्ट

व्यंग्य लिखा नहीं जाता पैदा हो जाता है। मेरा ऐसा मानना है। क्योंकि संसार में हर पल कुछ न कुछ घटता है। उस घटे हुए में से एक टीस जो निकलती है। वह व्यंग्य है। जो हुआ उसमें ये नहीं होना था। तब व्यंग्य पैदा होता है। "सजग का माइक्रोस्कोप" के नाम से संजय जोशी 'सजग' का पहला व्यंग्य संग्रह आया है। संजय जोशी के नाम के साथ सजग उपनाम उनकी जागृत चेतना का पर्याय है। वे समाज, राजनीति,साहित्य,संस्कृति,धर्म,मिडिया,शिक्षा में जो विसंगतियाँ है,जो विडम्बना है उनको अपने दिमाग के माइक्रोस्कोप से बड़े ध्यान से देखते है और अपनी रिपोर्ट इस संग्रह के रूप में समाज को देते है। उनकी रिपोर्ट आम आदमी को समझ आए और गुदगुदी दे जाए ये उनका प्रयास है।

संजय जोशी सजग और संदीप सृजन

"सजग का माइक्रोस्कोप" में संजय जोशी जी के 59 व्यंग्य है। जो उन्होनें कहीं दूर जाकर या विशेष चिंतन करके नहीं लिखे है। उन्होने मनुष्य समाज में रहते हुए जो देखा है। उसी में से कुछ चुभन को व्यंग्य का स्वरूप दिया है। अपने व्यंग्य में वे तमाम तरह की बातों के बीच जो गहरे कटाक्ष करते है वे सटीक ब्रह्म वाक्य  है ,जैसे-
- सेल्फी आधुनिकता की निशानी और नशा हो गया है।
- कर्म प्रधान को चुगली प्रधान ने हर जगह मात दे रखी है।
- इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि आप कितने ज्ञानी है। फर्क इससे पड़ता है कि आपमें मूर्खता का प्रतिशत कितना है।
- राजनीति को भी विज्ञान कहा जाता है, पर विज्ञान की तरह इसमें भी थ्योरी और प्रेक्टिकल का अंतर है।
- नेता नमक की भांति राजनीति को कभी स्वादहीन तो कभी स्वादिष्ट बनाता है।
- जब तनाव की हो बहार, मधुमेह का लो उपहार।
- ट्रायल पर ट्रायल चलते रहेंगे और हम सब कभी कायल तो कभी घायल होते रहेंगे, हमारा देश ट्रायल प्रधान देश है।
- ठग और डाकू में एक ही असमानता है, डाकू हथियार का उपयोग करते है और ठग दिमाग का।
- दिल्ली में राजनीति का एक शोरूम है, शोरूम के संचालक का अपने पर ही विश्वास नहीं है।
- नेट पर हर त्यौहार को इतने धूमधाम से मनाया जाता है कि उसकी ख्याति अन्तर्राष्ट्रीय हो जाती है।
ये सारी चुटकियाँ व्यंग्यों में जान डालती नजर आती है, 59 व्यंग्यों में और भी कई चुटकियाँ पाठकों को पढ़ने को मिलेगी। व्यंग्यों में रोचकता है क्योंकि सजग जी के अधिकांश व्यंग्य कथानक शैली में है, संवाद रूप में है। जो की आम बातचीत जैसे लगते है। और उन्हीं के बीच में चुटकियाँ उन्होंने ली है। व्यंग्य में विषय के दोहराव से विचारों का दोहराव भी देखने को मिला है तो कहीं-कहीं पर सपाट बयानी व्यंग्य को लेख में बदल रही है। पर उबाऊ पन नहीं है, यह सुखद है। सभी व्यंग्य दैनिक समाचार पत्रों में कहीं न कहीं प्रकाशित हो चुके है। पढ़ने योग्य है।
"सजग का माइक्रोस्कोप" का प्रकाशन म.प्र. साहित्य अकादमी के सहयोग से हुआ है। प्रकाशन की क्वालिटी बहुत बढ़िया है, इसके लिए उत्कर्ष प्रकाशन भी बधाई का पात्र है। आगे और भी सजगता से सजग जी का नया व्यंग्य संग्रह समाज को मिले यही शुभकामनाएं।

पुस्तक - सजग का माइक्रोस्कोप (व्यंग्य संग्रह)
लेखक- संजय जोशी 'सजग'
पता - 78, गुलमोहर कॉलोनी, रतलाम
प्रकाशक- उत्कर्ष प्रकाशन, दिल्ली
पृष्ठ - 132
मूल्य- 200

चर्चाकार - संदीप सृजन, उज्जैन
मो. - 9406649733

समाज को चिंतन देती कृति- आईने में तैरती सच्चाइयाँ


"अच्छा कवि बहुत ज़िद्दी होता है और कविता लिखते समय अपने विवेक और शक्ति के अलावा किसी और की नहीं मानता है।" साहित्यकार विष्णु खरे की यह बात उज्जैन के गौरव गीतकार हेमंत श्रीमाल जी पर सटीक बैठती है।श्रीमाल जी जब गीत बुनते है तो कागज़ और क़लम का उपयोग नहीं करते बल्कि उस गीत को अपने मस्तिष्क में पूरा तैयार करते है और पूरा होने के बाद कागज़ पर आकार देते है। याने सिर्फ अपने विवेक याने बुद्धि और शक्ति याने स्मरण शक्ति का ही उपयोग कर रचनाकर्म करते है। यही वजह है कि हेमंत जी के गीतों में एक अलग चिंतन है जो समाज को नये विचार दे कर सोचने को मजबूर करता है। उनने हमेशा क्वालिटी पर ध्यान दिया है। उनका स्वर भी सधा हुआ है। जिनने उनको प्रत्यक्ष सुना है। वे जानते है कि कवि सम्मेलनों में उनके गीतों पर जनता ने अक्सर खड़े होकर तालियाँ बजायी है।

गीतकार श्री हेमन्त श्रीमाल

"आईने में तैरती सच्चाइयाँ" शीर्षक से हाल ही में हेमंत श्रीमाल जी का पहला गीत संग्रह म.प्र. साहित्य अकादमी के सहयोग से प्रकाशित हुआ है। जिसमें उनके राष्ट्रीय और सामाजिक चेतना के गीतों का संकलित है। 60 गीतों के इस संकलन में जो गीत है उनमें से अधिकांश गीत वे मंचों पर सुनाते रहते है। और श्रोताओं का जो प्रतिसाद मिलता है वो देखने लायक होता है। श्रीमाल जी के गीतों पर लिखना सूरज को दीया दिखाने जैसा है। फिर भी एक कोशिश उनके इस संग्रह से पाठकों परिचित करवाने के लिए कर रहा हूँ। 

हेमंतजी एक मे गीत में कहते है कि-

शहीदों की शपथ तुझको कलम लिख धार की बातें।

लहू को गर्म रखने हित तनिक तलवार की बातें।

तब वे कलमकारों से आव्हान करते नजर आते है। और कलमकार को अपने नैतिक दायित्व से परिचित करवाते है। 

मजदूर की पीड़ा को स्वर देते हुए वे कहते है कि-

सांसे गिरवी रखकर भी हम आस नहीं कर पाते है।

सपनों की क्या बात करें जब पेट नहीं भर पाते है।

श्रीमाल जी की मंचों की बहुत प्रसिद्ध रचना चंबल की बेटी का बयान मानवता को झकझोर देने वाली रचना है। पढ़ते हुए रोंगटे खड़े करने वाली है। सदी के नाम रचना में जो बदलाव सभ्यता में आए है उनको बहुत दमदारी के साथ वे कहते है- 

दादागिरी का राज है गुण्डों का जोर है

पग-पग पे लूट और लुटेरों का शोर है

कैसा ये लोकतन्त्र है कैसा ये दौर है

इक दूसरे के वास्ते हर दिल में चोर है।

राजनीति और समाजिक विषमता पर उनकी रचना *जलता हुआ सवाल* मंचों की अजेय रचना है। वे लिखते है-

सत्ता में पैठ होते ही मलखान हो गये

पहले ही क्या कमी थी जो बेइमान हो गये

रिश्वत की चलती-फिरती इक दूकान हो गये

कल के भिखारी आज के धनवान हो गये

देश के हालात और तात्कालीन स्थिती पर लिखे गीत में हेमंत जी के ये शब्द कालजयी है-

जब तक कुर्सी ही सब कुछ है, और कुछ भी ईमान नहीं

तब तक मेरे देश तुम्हारा होना है कल्याण नहीं

सरकारी घोटालों पर केन्द्रीत रचना देखो नाटक नंगों का, भोपाल गैस कांड पर लिखी गूंगे का बयान, पंजाब मे हुए दंगों पर धधकते हुए पंजाब के नाम, देश को जब सोना विदेशों में गिरवी रखना पड़ा तब तुच्छ भिखारी बना दिया, दक्षिण भारत में आए तूफान के बाद की लच्चर सरकारी व्यवस्था पर उत्तर दो, था ध्यान कहॉ?, अबला पर हुए अत्याचार पर लिखी फिर एक मंदिर तोड़ दिया, बहु को जिंदा जलाए जाने वाले हादसों पर तेल झमाझम झार दिया, पुतलीबाई के चम्पा से नगरवधु बनने तक की कहानी कहती रचना चम्पा घर से भाग गई, कोरोना महामारी के के दौरान हुए लॉक डाउन की स्थिती पर लिखी रचना लॉक डाउन अप्रैल 2020- पैकेज और प्यार विशेष रचनाओं की श्रेणी में आती है। 

सामाजिकता व दार्शनिकता वाली रचनाओं में गौ हत्या स्वीकार नहीं, कांच का मकान आदमी, हर मुफलिस धनवान हुआ, मौत का अहसास के अलावा भी सारी रचना श्रेष्ठतम है। श्रीमाल जी की ग़ज़लें भी चिंतन से भरपूर है।

पुस्तक आईने में तैरती सच्चाइयाँ बार बार पढ़ी जाने वाली कृति है। कोई भी गीत खुल जाए पूरा पढ़े बगैर मन नहीं मानता । यह कृति काफी देर से उन्होनें समाज के बीच रखी है ।आवरण से अंत तक पुस्तक सुंदर है। इस कृति के लिए श्रद्देय हेमंत श्रीमाल जी को बधाई। और आने वाली कृतियों के लिए शुभकामनाएँ...।

पुस्तक - आईने में तैरती सच्चाइयाँ

गीतकार - हेमन्त श्रीमाल

प्रकाशक- ऋषिमुनि प्रकाशन उज्जैन

पृष्ठ- 104 (सजिल्द)

मूल्य- 450

चर्चाकार- संदीप सृजन, उज्जैन

sandipsrijan999@gmail.com 

आदर्श जीवन की मिसाल गांधीजी और शास्त्रीजी

 


महात्मा गांधी और लाल बहादुर शास्त्री ऐसे दो महामानव जो भारत के भाग्य विधाता रहे, जिनकी विचार धारा एक दुसरे की पूरक रही। जो देश के लिए जिए और देश के हित में ही काल के ग्रास बने । देश और समाज के प्रति दोनों की समर्पण भावना में किंचित मात्र भी संदेह नहीं किया जा सकता है। ऐसे दोनों महापुरुषों का जन्म दिन एक साथ होना भी किसी महान संयोग से कम नहीं है।

गांधीजी अहिंसा के प्रबल समर्थक, शांति के अग्रदूत‌ रहे। तो शास्त्री जी दृढ़ इच्छा शक्ति के व्यक्तित्व बनकर समाज में उभरे। गांधी जी के जीवन ने न केवल भारतीय समाज को प्रभावित किया वरन विश्व के तमाम देशों में उनके जीवन को आदर्श जीवन के आधार माना जाता है। तो शास्त्री जी की नैतिक कार्यशैली और दूरदर्शिता का कोई सानी नहीं है। वर्तमान समय में बढ़ती भूखमरी, बेरोजगारी, विश्व हिंसा, वैश्विक आर्थिक मंदी और आपसी वैमनस्यता जैसी समस्याओं से सारा विश्व आहत है। ऐसे समय में महात्मा गांधी और शास्त्री जी के विचारों की प्रासंगिकता और अधिक हो जाती है। तथा उनके कार्यों के अनुसरण से विश्व की तमाम समस्याओं का हल हो सकता है।

गांधी जी अपने समय के तमाम महापुरुषों में बिरले थे क्योंकि उन्होंने सत्य और नैतिक जीवन को सिर्फ जीया ही नहीं लिखने का साहस भी किया। अपने आदर्शो को तो समाज के सामने रखा पर अपने जीवन की बुराइयों को छुपाने की कोशिश भी नहीं की। यह उनकी सत्यनिष्ठा को दर्शाता है।

गांधी जी को वैष्णव संस्कार अपनी माँ से जनम घुट्टी के साथ मिले थे। गांधी जी के जीवन में नरसी मेहता के भजन वैष्णव जन तो तेने कहिये का बहुत प्रभाव रहा। इस भजन को ही गांधीजी ने अपने जीवन में अंगीकार किया। इस भजन में उल्लेखित गुण परोपकार, निंदा न करना, छल कपट रहित जीवन, इंद्रियों पर नियंत्रण, सम दृष्टि रहना, पर स्त्री को माता मानना, असत्य नहीं बोलना, चोरी न करना को जीवन पर्यंत अपनाया और इन्हीं के द्वारा भारत में राम राज की स्थापना की संकल्पना की। ये गुण ही मोहनदास गांधी को महात्मा गांधी बनाते है।

वहीं लाल बहादुर शास्त्री बचपन से अभावों में पले और बड़े हुए लेकिन अपने मितव्ययी और आत्मनिर्भर स्वभाव के चलते हर हाल में खुश रहने वाले व्यक्तियों में थे। बड़े होने के साथ ही लाल बहादुर शास्त्री विदेशी दासता से आजादी के लिए देश के संघर्ष में अधिक रुचि रखने लगे। वे महात्मा गांधी द्वारा चलाए जा रहे स्वाधिनता आंदोलन से प्रभावित थे। लाल बहादुर शास्त्री जब केवल ग्यारह वर्ष के थे तब से ही उन्होंने राष्ट्रीय स्तर पर कुछ करने का मन बना लिया था।

गांधी जी ने असहयोग आंदोलन में शामिल होने के लिए अपने देशवासियों से आह्वान किया था, इस समय लाल बहादुर शास्त्री केवल सोलह वर्ष के थे। उन्होंने महात्मा गांधी के इस आह्वान पर अपनी पढ़ाई छोड़ देने का निर्णय कर लिया था। उनके इस निर्णय ने उनकी मां की उम्मीदें तोड़ दीं। उनके परिवार ने उनके इस निर्णय को गलत बताते हुए उन्हें रोकने की बहुत कोशिश की लेकिन वे इसमें असफल रहे। लाल बहादुर ने अपना मन बना लिया था। उनके सभी करीबी लोगों को यह पता था कि एक बार मन बना लेने के बाद वे अपना निर्णय कभी नहीं बदलेंगें क्योंकि बाहर से विनम्र दिखने वाले लाल बहादुर अन्दर से चट्टान की तरह दृढ़ हैं।

गांधीजी आधुनिक भारत के अकेले नेता थे जो किसी एक वर्ग एक विषय एक लक्ष्य को लेकर नहीं चले, जन-जन के नेता थे, करोड़ों लोगों के ह्रदय पर राज करते थे, गांधीजी साम्राज्यवादजातिय सांप्रदायिक समस्या, भाषा नीति और सामाजिक सुधार पर अपने व्यक्तिगत और राष्ट्रीय सरोकार जो की गांधी को महान विभूति बनाते है।

वहीं शास्त्री जी ने भी स्वतंत्रता के पहले गांधीजी के साथ नमक कानून को तोड़ते हुए दांडी यात्रा की। इस प्रतीकात्मक सन्देश ने पूरे देश में एक तरह की क्रांति ला दी। लाल बहादुर शास्त्री विह्वल ऊर्जा के साथ स्वतंत्रता के इस संघर्ष में शामिल हो गए। उन्होंने कई विद्रोही अभियानों का नेतृत्व किया एवं कुल सात वर्षों तक ब्रिटिश जेलों में रहे। आजादी के इस संघर्ष ने उन्हें पूर्णतः परिपक्व बना दिया।

स्वतंत्र भारत में शास्त्री जी ने केंद्रीय मंत्रिमंडल के कई विभागों का प्रभार संभाला रेल मंत्री; परिवहन एवं संचार मंत्री; वाणिज्य एवं उद्योग मंत्री; गृह मंत्री एवं नेहरू जी की बीमारी के दौरान बिना विभाग के मंत्री रहे। एक रेल दुर्घटना, जिसमें कई लोग मारे गए थे, के लिए स्वयं को जिम्मेदार मानते हुए उन्होंने रेल मंत्री के पद से इस्तीफा दे दिया था। लेकिन प्रधानमंत्री पंडित नेहरू ने इस्तीफा स्वीकार नहीं किया। रेल दुर्घटना पर लंबी बहस का जवाब देते हुए लाल बहादुर शास्त्री ने कहा; “शायद मेरे लंबाई में छोटे होने एवं नम्र होने के कारण लोगों को लगता है कि मैं बहुत दृढ नहीं हो पा रहा हूँ। यद्यपि शारीरिक रूप से में मैं मजबूत नहीं है लेकिन मुझे लगता है कि मैं आंतरिक रूप से इतना कमजोर भी नहीं हूँ।

सारे विश्व के लिए समरसता, सद्भाव, अहिंसा और सत्य की बात करने वाले गांधी जी भारतीय स्वतंत्रता संगाम के वो चमत्कारिक नायक बने जिनके एक आव्हान पर भारत का समूचा जनमानस एकत्रित और संगठित रूप में ब्रिटिश शासकों के विरुद्ध खड़ा हो गया था। गांधी जी ने नस्लभेद मिटाने के साथ हिंदु समाज के अविभाज्य अंग को हरिजन नाम दिया और हिन्दू-मुस्लिम में एकता स्थापित करने के कई प्रयास भी किए। उन्होंने चंपारण से स्वाधीनता की बिगुल बजाई और खिलाफत में हिंदू-मुस्लिम की एकता की मिसाल पेश की वह अद्भुत थी।

वहीं तीस से अधिक वर्षों तक अपनी समर्पित सेवा के दौरान लाल बहादुर शास्त्री अपनी उदात्त निष्ठा एवं क्षमता के लिए लोगों के बीच प्रसिद्ध हो गए थे। विनम्र, दृढ, सहिष्णु एवं जबर्दस्त आंतरिक शक्ति वाले शास्त्री जी लोगों के बीच ऐसे व्यक्ति बनकर उभरे जिन्होंने लोगों की भावनाओं को समझा। वे दूरदर्शी थे जो देश को प्रगति के मार्ग पर लेकर आये। लाल बहादुर शास्त्री महात्मा गांधी के राजनीतिक शिक्षाओं से अत्यंत प्रभावित थे। अपने गुरु महात्मा गाँधी के ही लहजे में एक बार उन्होंने कहा था – “मेहनत प्रार्थना करने के समान है।उन्होने ही देश को जय जवान-जय किसान का नारा दिया। महात्मा गांधी के समान विचार रखने वाले लाल बहादुर शास्त्री भारतीय संस्कृति की श्रेष्ठ पहचान हैं।

2 अक्टूबर 1869 को गांधी जी और 2 अक्टूबर 1904 को लाल बहादुर शास्त्री का जन्म हुआ और दोनों महामानवों के विचार और वैचारिक दृढ़ता में अद्भूत सामंजस्य था। दोनों ने भारत को आजादी दिलाने के लिए तन-मन-धन से लोगों को जोड़ा साथ ही स्वावलंबी समाज की और जन-जन को प्रवृत किया। वहीं नैतिक जीवन जी कर समाज को संदेश दिया जो कि सामान्य मनुष्य के लिए संभव नहीं होता है। यह वजह रही होगी की उस समय महान वैज्ञानिक अल्बर्ट आइंस्टीन ने गांधी जी के बारे में  बिलकुल सटीक कहा था कि भविष्य की पीढ़ियों को इस बात पर विश्वास करने में मुश्किल होगी कि हाड़-मांस से बना ऐसा कोई व्यक्ति भी कभी धरती पर आया था। वही लाल बहादुर शास्त्री के बारे में कहा जाता है कि वे छोटे कद के बड़े व्यक्ति थे। दोनों महापुरुषों को सादर नमन...।

-संदीप सृजन

संपादक- शाश्वत सृजन

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